Sunday, October 31, 2010
फ़िल्मे-समाज का आईना
एक दिन राजकपूर की एक फिल्म देख रहा था जिसमे एक सीधा साधा नौजवान बी ए की डिग्री जेब मे रखे हुए नौकरी की तलाश मे घूमता है, फुटपाथ पर सोने वालो और झुग्गी झोपड़ी मे रहने वालो के साथ रहता है उनके पास रहना खाने के लिए कुछ अच्छा हो या ना हो पर एक दूसरे के गम बाँटने के लिए एक अच्छा दिल ज़रूर होता है , फिल्म मे उस ग़रीब भारत की तस्वीर भी दिखाई देती है जिसे अब देखना नही चाहते और समाज का आईना कही जाने वाली फ़िल्मे उसे दिखाना पसंद नही करती, हीरो एक लड़की से मिलता है कुछ ना होते हुए सिर्फ़ अपनी बातो से लड़की को इंप्रेस करना चाहता है उसे बताता है की वो आवारा तो है पर अनपड़ नही , लड़की उसे पसंद करने लगती है , हीरो उसे फुटपाथ पर चाय पिलाता है जिसके पैसे भी लड़की ही देती है और दोनो अपने प्यार को स्वीकार करते हैं , हीरो अमीर बनने के लिए धोखाधड़ी के तरीके अपनाता है पैसा कमाता है पर वो प्यार नही पा पाता और अंत मे वापस सब कुछ छोड़ कर वही सीधा साधा नौजवान बनकर जाने लगता है तो उसका प्यार उसे अपनाता है औ कहानी का अंत हो जाता है कुल मिलाकर एक ग़रीब भारत का ग़रीब हीरो जो उसी हिन्दुस्तान का प्रतिनिधि है जो असलियत मे है फिल्म एक आम आदमी की कहानी दिखती है जहा ग़रीबी है पर लोगो के बीच एक अपनापन है एक दूसरे के दर्द समझने का अहसास है , दूसरी तरफ देखता हू तो आज की फ़िल्मे हैं जहा हीरो हेरोइन करोड़पति होते हैं फ़िल्मो मे होता है तो उनका रोमांस बस उन्हे इस समाज से कोई मतलब ही नही होता आज हीरो या तो एक दबंग पुलिस वाला होता है जिसे सिस्टम से कोई मतलब नही सही ग़लत का फ़ैसला वो खुद करता है, या किसी अरबपति परिवार का लड़का जिसे किस चीज़ की कोई चिंता ही नही होती, या एक बड़ा अपराहदी जो कन्नों तोड़ता है लेकिन उसका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता , हीरोइन भी अब वो सुंदर और सुशील वाला चोला उतार चुकी है अब लड़की का सेक्सी, स्टाइलिश होना ज़रूरी है वो पुरानी फ़िल्मो की संस्कारवान्न लड़की तो अब पर्दे से गायब हो चुकी है फ़िल्मे अब करोड़ो का नही अरबो का कारोबार करती हैं लेकिन क्या वो उस समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए उन्हे बनाया जाता है शायद नहियब वो दिन पुराने हो गये जब फ़िल्मे समाज का आईना हुआ करती थी
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